‘ग्वादर’ यह नाम सन १९५८ के दिसंबर तक शायद ही कोई जानता था. एक उपेक्षित सा, छोटासा, सागर किनारे का गांव, ईरानी सीमा से मात्र १२० किलोमीटर दूर, जहां बलूची कबीले बसते थे. ओमानी सल्तनत इसका प्रशासन देखती थी. लेकिन यह था तो ओमान से दूर, कटा हुआ सा. स्वाभाविक था की विकास की किरणे दूर – दूर तक भी नहीं दिखती थी.
८ दिसंबर, १९५८ को पकिस्तान ने इसे ओमानी सल्तनत से तीस लाख डॉलर्स में ख़रीदा, तो अनेक देशों का ध्यान इस तरफ गया. लेकिन खरीदने के बाद पाकिस्तान ने तात्कालिक रूप से ग्वादर में कोई नया काम नहीं शुरू किया और यह उपेक्षित ही पड़ा रहा.
१९६५ के भारत – पाक युध्द में भारत की नौसेना ने कराची बंदरगाह पर कब्जा कर लिया था. पाकिस्तान के पास यही एक मात्र बंदरगाह था. और भारत का कब्जा उसपर होने के बाद, पाकिस्तान का समुद्री संपर्क शेष दुनिया से कट गया था. मानो भारत ने कराची बंदरगाह पर कब्जा कर के पाकिस्तान की नाक दबा दी थी. जाहिर हैं, उसे मुंह खोलना पडा, हार स्वीकारनी पड़ी..!
एक अतिरिक्त बंदरगाह का, अर्थात ग्वादर का महत्व पाकिस्तान को तभी समझ आया था. लेकिन पाकिस्तान उस विषय पर कुछ सोचता, इसके पहले ही उसने १९७१ का युध्द छेड़ दिया. फिर इतिहास दोहराया गया. फिर कराची बंदरगाह की नाकाबंदी हुई और फिर पाकिस्तान की समुद्री आपूर्ति और समुद्री संपर्क टूट गया.
इसके बाद पाकिस्तान ने ग्वादर को एक विकसित बंदरगाह बनाने की ठानी. उसे ग्वादर का सामरिक महत्व बड़े अच्छे से समझ में आया था. लेकिन वास्तविक धरातल पर कहानी कुछ और थी. दो युध्दों के बाद, पाकिस्तान लगभग कंगाल हो गया था. ग्वादर को विकसित करने के लिए उसके पास पैसे ही नहीं थे. इसलिए ग्वादर का मामला अनेक वर्षों तक ऐसा ही अटका रहा....
सन २००० के आसपास, चीन की विस्तारवादी नीति जब कुलांचे मारने लगी, तो ग्वादर अत्यंत महत्वपूर्ण बन गया. चीन को अपने पेट्रोलियम पदार्थों की आपूर्ति के लिए कोई पास का (छोटा) रास्ता ढूंढना था. खाड़ी देशों से तेल मंगवाते समय चीनी जहाज, अरब सागर, हिन्द महासागर वगैरे लंबा चक्कर लगाकर चीन पहुचते थे. इससे समय भी ज्यादा लगता था और तेल की कीमते भी बढती थी.
इसलिए चीन ने ढूंढा पाकिस्तान से होकर जाने वाला रास्ता. चीन के उत्तर – पश्चिमी ‘काशगर – शिनजियांग’ आदि क्षेत्रों को पाकिस्तान से जोड़ना उसे तुलना में आसान लग रहा था. बस आवश्यकता थी, तो ईरान के पास के किसी बंदरगाह की....
और ग्वादर इन जरूरतों में बिलकुल फिट बैठता था...!
चीन और पाकिस्तान, दोनों की जरूरतें समान थी. तो समझौता हो गया. और चीन ने चालीस करोड़ डॉलर्स से भी ज्यादा की पूंजी लगाकर ग्वादर को दुनिया का अत्याधुनिक बंदरगाह बना दिया..!
अब बंदरगाह के लिए, पाकिस्तान की निर्भरता कराची पर नहीं रही. साथ ही उसे तेल आयात करने के लिए ईरान के बिलकुल पास का, ग्वादर बंदरगाह मिल गया. चीन के लिए तो मानो खजाने का दरवाजा ही खुल गया. समंदर से आयात होने वाली अधिकतम चीजे उसे ग्वादर से मिलने लगी.
ग्वादर विकसित होने के बाद, शुरुआत में तो पकिस्तान ने उसका प्रबंधन सिंगापुर की एक चीनी कंपनी को सोंपा था. लेकिन सन २०१२ से चीन सरकार के नियंत्रण वाली, ‘चाइना ओवरसीज पोर्ट होल्डिंग कंपनी’ (COPHC), ग्वादर का सारा प्रबंधन देख रही हैं.
ग्वादर को चीन के ‘काशगर – शिनजियांग’ क्षेत्र से जोड़ने के लिए चीन सरकार अरबों डॉलर्स का निवेश कर रही हैं. इस मार्ग पर रेल लाइन बिछ रही हैं, तो चौड़ा राजमार्ग भी तैयार हो रहा हैं. साथ ही तेल ले जाने के लिए मजबूत पाइपलाइन भी डाली जा रही हैं. यह सब ‘चाइना – पाकिस्तान इकनोमिक कॉरिडोर’ (CPEC) परियोजना के अंतर्गत हो रहा हैं.
इस समय ग्वादर की सुरक्षा चीनी सेनाओं के हाथों में हैं. ग्वादर को जोड़ने वाला जो मार्ग बन रहा हैं, तथा तेल की जो पाइपलाइन डाली जा रही हैं, उसकी पूरी सुरक्षा भी चीनी सेना के हाथों में हैं. इसलिए, इस समय गिलगिट – बाल्टिस्तान से लेकर तो ग्वादर तक, बड़ी संख्या में चीनी सेना का जमावड़ा हो गया हैं.
आज तक हमारा जो दुश्मन उत्तर – पूर्व में हिमालय के पीछे छिपा था, वो आज उत्तर – पश्चिम और पश्चिम में, पूरी ताकत के साथ खड़ा हैं, हमारे दुसरे दुश्मन, पाकिस्तान को एक अति आधुनिक बंदरगाह का तोहफा देकर..!!
- प्रशांत पोल