बापूजी नहीं रहे..!


सायंकाल जलगांव जाने के लिए ट्रेन में बैठा. दिन भर की अत्यधिक व्यस्तता के कारण सोशल मीडिया के सन्देश देखना संभव ही न था. अब थोड़ी फुर्सत थी. मोबाईल खोला. देखा, तो नई व्यवस्था में अ. भा. सह-प्रचारक प्रमुख बने हमारे क्षेत्र प्रचारक मान. अरुण जैन जी का सन्देश था, ‘श्रध्देय चंद्रशेखर अर्थात बापूजी गुप्ते नहीं रहे.”

पढ़ते ही साथ, मेरे स्मृतिकोष को मानो किसी ने डंख मार लिया. बापूजी से संबंधित अनेक यादे, अनेक घटनाएं सामने आती गयी.  

जबलपुर में मैं शाखा जाने लगा और मेरा संपर्क श्रध्देय बापूजी से हुआ. होना ही था. बाल गण का कोई व्यक्ति बापूजी से न मिले, यह संभव ही नहीं था. सायं शाखा थी. बापूजी की स्वतः की शाखा प्रभात में होती थी. किन्तु, सुबह १० बजे से सायं ५ बजे तक हाईकोर्ट का कामकाज छोड़ा, तो बापूजी पूर्णतः संघ को समर्पित थे. इसलिए वे स्वाभाविक हमारी सायं शाखा में भी आते थे. मैदान सींचने से लेकर तो शिशु गण के किसी स्वयंसेवक को शाखा के बाद घर छोड़ने जाने तक, सारे काम करते थे. हम बच्चों में, बिलकुल बच्चों जैसा रहते थे, मजाक करते थे, हसांते थे, गीत गाते थे, बहुत अच्छा शंख (बिगुल) बजाते थे...

बहुत पहले, केशव सायं शाखा अरुण डेरी के सामने लगती थी. रोज सौ से ज्यादा उपस्थिति रहती थी. बापूजी वहीँ, हमारे पूर्व महापौर श्री सदानंद गोडबोले जी के बाड़े में, रहते थे. सारे राईट टाउन में बापूजी प्रसिध्द थे. बापूजी याने शाखा. बापूजी याने संघ. यही उनकी पहचान थी. संघ के किसी उत्सव से पहले, बापूजी का उत्साह देखते बनता था. गणवेश को प्रेस करना, जूतों को पॉलिश, बेल्ट के बकल को ब्रासो से चमकाना आदि अनेक काम चलते रहते थे. सारे स्वयंसेवकों की तयारी करवाना यह मानो उनकी जिम्मेवारी रहती थी. उस उत्सव के समय, संचलन में घोष बजाते समय बापूजी का चेहरा अत्यंत आनंद से चमकता रहता था.

फिर १९७५ में आपातकाल आया. इंदिरा जी ने संघ पर प्रतिबंध लगाया. अनेक स्वयंसेवक गिरफ्तार हुए. किन्तु सौभाग्य से बापूजी बच गए. लेकिन बापूजी संघ का काम करते रहे. गिरफ्तारी से डरने वालों में वे थे ही नहीं. शाखा नहीं थी, तो अन्य उपक्रम प्रारंभ हुए. गुरूवार का भजन का कार्यक्रम बड़ा पसंदीदा था. लगभग २० – २५ स्वयंसेवक उसमे आते थे. बापूजी अपने बुलंद स्वर में भजन गाते थे.

पक्का स्मरण नहीं हैं, शायद १९७६ का जनवरी महीना होगा. बापूजी ने तय किया की अगले रविवार को केशव नगर के सभी स्वयंसेवक वनसंचार के लिए जायेंगे. स्थान तय हुआ – रानी दुर्गावती की समाधि. १८ किलोमीटर दूर. आपातकाल के कारण दूर का स्थान चयन करना आवश्यक था. अपेक्षा थी, ३० से ३५ स्वयंसेवक आयेंगे. किन्तु, रविवार की सुबह नियत स्थान पर मिले, तो हम मात्र ३ स्वयंसेवक थे. मैं, सुधीर और बापूजी..! बाकी सभी घरों में, आपातकाल के डर से, जाने के लिए मनाई हो गयी थी.

लेकिन मजे की बात, फिर भी हमारा वन संचार का कार्यक्रम हुआ. जैसा सोचा था, वैसा ही. वहां बापूजी ने शाखा भी ऐसी ही लगाई, जैसे ३० स्वयंसेवक हो. सारे कार्यक्रम वैसे ही हुए. खूब आनंद आया. आते समय गौर नदी के पुल पर बापूजी ने हम दोनों को मुन्गौड़े खिलाएं. उन मुन्गौड़े का स्वाद आज तक जिव्हा पर हैं..!

आपातकाल हटने के दिन, हम सब केशव कुटी पहुचे. सबसे उत्साह में थे, बापूजी. हम सब को लेकर पूरे भवन को उन्होंने झाड़ू लगायी. सामने में जमीन के नीचे पानी की जो टंकी थी, उस में खुद उतर कर साफ़ किया. उस दिन, शायद बापूजी को नया जीवन मिल रहा था.

बाद में उनका स्थानांतरण ग्वालियर में हुआ. १९८१ में उसने ग्वालियर के हाई कोर्ट में मिलना भी स्मृतिकोष में अंकित हैं. ग्वालियर में ही वे सेवानिवृत्त हुए. संघ कार्यालय के पास घर लेकर रहते थे, और एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता के माफिक संघ कार्य करते थे.

बापूजी आदर्श स्वयंसेवक थे. जीवन भर अविवाहित रहे. संघ कार्य यही उनका जीवन था, उनका संसार था. हम स्वयंसेवकों को अतीव स्नेह देते थे. मेरे जैसे अनेक स्वयंसेवकों को, ‘कुछ बनने की आयु में’ उन्होंने आदर्शों से परिचय कराया. हमारे जीवन में कुछ उदात्त भाव प्रकट हो, कुछ ध्येय भाव निर्माण हो, इसकी पूरी चिंता उन्होंने की. उनका स्वतः का संसार तो नहीं था. किन्तु स्वयंसेवकों का विशाल परिवार, यही उनका परिवार था.

आज प्रातः महाराष्ट्र के परभणी में ९० वर्ष के आयु में यह ज्योति शांत हुई.

ऐसे ध्येयासक्ती से परिपूर्ण, संघ समर्पित, आदर्श स्वयंसेवक श्रध्देय बापूजी गुप्ते को मेरे विनम्र श्रध्दासुमन..!

  • प्रशांत पोळ