- प्रशांत पोळ
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की प्रतिनिधी सभा की बैठक नागपुर में चल रही हैं. इस बैठक में कुछ प्रस्ताव पारित होते हैं. देश में उन प्रस्तावों के अनुरूप वातावरण बने यह अपेक्षा होती हैं.
इस वर्ष का पहला प्रस्ताव पारित हो गया हैं. यह प्रस्ताव भारतीय भाषाओं के गरिमा, सम्मान, संरक्षण, संवर्धन, और दैनंदिन उपयोग को लेकर हैं.
यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण हैं की संपन्न और समृध्द भाषाओँ का देश होने के बाद भी हमारे देश में अंग्रेजी का न केवल चलन-वलन हैं, अपितु अंग्रेजी यह संभ्रांत लोगोंकी भाषा मानी जाती हैं. यदि आप अंग्रेजी में बात करते हैं, तो ही आप बुध्दिजीवी, विद्वान, आधुनिक, कलाप्रेमी इत्यादि हैं, ऐसा माना जाता हैं.
पैंतीस से ज्यादा देशों की तो मैंने भी यात्रा ही हैं. किन्तु मुझे (अंग्रेजी भाषिक देश, अर्थात इंग्लैंड, अमरीका, ऑस्ट्रेलिया आदि को छोड़कर) भारत यह एकमात्र देश ऐसा मिला, जहां दो समान भाषा बोलने वाले लोग, आपस में मिलने पर भी अंग्रेजी में संवाद करते हैं..!
फ़्रांस में यदि दो फ्रेंच आदमी मिले, और आपस में अंग्रेजी में बोलने लगे, तो उन्हें ‘अनाडी’ समझा जाता हैं. यही हाल जर्मनी में हैं. यही जापान में, इजराइल में, हॉलैंड में, स्पेन में, मेक्सिको में, इंडोनेशिया में... सभी देशों में.
दुर्भाग्य से हमारे देश में इस ‘अनाडीपन’ को लोग अपनी बुध्दिमत्ता समझते हैं...!
संघ के प्रस्ताव में अपील हैं, स्वयंसेवकों से, समाज से, सरकार से, की वे भारतीय भाषाओं को प्राथमिकता दे. अपने बच्चों की प्राथमिक / माध्यमिक शिक्षा मातृभाषा में या अन्य भारतीय भाषाओँ में ही करे. आपस में भारतीय भाषाओं में ही संवाद करे... आदि.
मेरा यह मानना हैं की देश को सुदृढ़, सक्षम और संपन्न बनाने में, ‘भाषा’ यह एक बहुत बड़ा ‘कारक’ हैं. इस दृष्टि से संघ का यह प्रस्ताव अत्यंत महत्वपूर्ण हैं.
लगभग एक वर्ष पहले, इजराइल ने हिब्रू भाषा किस प्रकार से उनके देश में लागू की, इस पर एक टिप्पणी लिखी थी. उसे पुनः दे रहा हूँ –
१४ मई, १९४८ को जब इजराइल बना, तब दुनिया के सभी देशों से यहूदी (ज्यू) वहां आये थे. अपने भारत से भी ‘बेने इजराइल’ समुदाय के हजारों लोग वहां स्थलांतरित हुए थे. अनेक देशों से आने वाले लोगों की बोली भाषाएं भी अलग अलग थी. अब प्रश्न उठा की देश की भाषा क्या होना चाहिए..? उनकी अपनी हिब्रू भाषा तो पिछले दो हजार वर्षों से मृतवत पडी थी. बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे. इस भाषा में साहित्य बहुत कम था. नया तो था ही नहीं. अतः किसी ने सुझाव दिया की अंग्रेजी को देश की संपर्क भाषा बनाई जाए. पर स्वाभिमानी ज्यू इसे कैसे बर्दाश्त करते..? उन्होंने कहा, ‘हमारी अपनी हिब्रू भाषा ही इस देश के बोलचाल की राष्ट्रीय भाषा बनेगी.’
निर्णय तो लिया. लेकिन व्यवहारिक कठिनाइयां सामने थी. बहुत कम लोग हिब्रू जानते थे. इसलिए इजराइल सरकार ने मात्र दो महीने में हिब्रू सिखाने का पाठ्यक्रम बनाया. और फिर शुरू हुआ, दुनिया का एक बड़ा भाषाई अभियान..! पाँच वर्ष का.
इस अभियान के अंतर्गत पूरे इजराइल में जो भी व्यक्ति हिब्रू जानती थी, वह दिन में ११ बजे से १ बजे तक अपने निकट के शाला में जाकर हिब्रू पढ़ाएगी. अब इससे बच्चे तो पाँच वर्षों में हिब्रू सीख जायेंगे. बड़ों का क्या..?
इस का उत्तर भी था. शाला में पढने वाले बच्चे प्रतिदिन शाम ७ से ८ बजे तक अपने माता-पिता और आस पड़ोस के बुजुर्गों को हिब्रू पढ़ाते थे. अब बच्चों ने पढ़ाने में गलती की तो..? जो सहज स्वाभाविक भी था. इसका उत्तर भी उनके पास था. अगस्त १९४८ से मई १९५३ तक प्रतिदिन हिब्रू का मानक (स्टैण्डर्ड) पाठ, इजराइल के रेडियो से प्रसारित होता था. अर्थात जहां बच्चे गलती करेंगे, वहां पर बुजुर्ग रेडियो के माध्यम से ठीक से समझ सकेंगे.
और मात्र पाँच वर्षों में, सन १९५३ में, इस अभियान के बंद होने के समय, सारा इजराइल हिब्रू के मामले में शत प्रतिशत साक्षर हो चुका था..!
आज हिब्रू में अनेक शोध प्रबंध लिखे जा चुके हैं. इतने छोटे से राष्ट्र में इंजीनियरिंग और मेडिकल से लेकर सारी उच्च शिक्षा हिब्रू में होती हैं. इजराइल को समझने के लिए बाहर के छात्र हिब्रू पढने लगे हैं..!
ये हैं इजराइल..! जीवटता, जिजीविषा और स्वाभिमान का जिवंत प्रतीक..!”
- प्रशांत पोळ