चीन से निर्माण हुए खतरों पर प्रकाश डालने वाली ७ लेखों की शृंखला की यह अंतिम कड़ी हैं. प्रतिदिन एक ‘लघु आलेख’ इस विषय पर लिखने की योजना थी, जो विशेष रूप से सोशल मीडिया के लिए लिखे गए हैं. यहां बड़े आलेखों के स्थान पर छोटे आलेख पसंद किये जाते हैं, जिसमे आशय तो पूरा हो, किन्तु जिन्हें हम चलते / फिरते भी पढ़ सकते हैं.

इससे पहले प्रकाशित, इस शृंखला के सभी छह आलेख फेसबुक और WA पर खूब चले. अनेकों समूहों में घुमते रहे. वायरल हुए. इन्हें पढ़कर एक बात हर कोई पूछता था, विषय तो ‘बहुत ही चिंतनीय हैं, लेकिन हमारी सरकार क्या कर रही हैं’..?

इसी प्रश्न के उत्तर में इस शृंखला का यह अंतिम लेखांक हैं.

हां. सरकार कर रही हैं. बहुत कुछ कर रही हैं.

मई, २०१४ में दिल्ली में तख्ता पलट होने का सशक्त सन्देश बीजिंग में गया. चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग, मोदी जी से मिलने आतुर थे. वे अपने स्पर्धक को जोखना चाहते थे. वे दिल्ली / अहमदाबाद आए. दिल्ली के सरकार में और दिल्ली के वायुमंडल में उन्होंने बदलाव का अनुभव किया.

और तब से आज तक, चीन ने भारत के विरोध में छुटपुट कारवाईयां तो की, लेकिन कोई भी बड़ा कदम नहीं उठाया हैं (या उठाने की हिम्मत नहीं की हैं..!). पिछले दो वर्षों में चीन की ‘मोतियों की माला’ में कोई नया सदस्य नहीं जुडा और न ही पुराने मोतियों का आकार बड़ा हुआ.

जो हुआ वो चीन की इच्छा के विपरीत हैं. दिल्ली में इस समय एक मजबूत सरकार हैं. इस सरकार के दो सदस्य विशेष रूप से जबरदस्त और बिंधास हैं. स्वतः प्रधानमंत्री मोदी जी और दुसरे, जहाजरानी मंत्री नितिन गडकरी जी. विदेश मंत्रालय के साथ काम करते हुए, इन दोनों के समन्वय से चीन को अपने कदम पीछे लेना पड़ रहे हैं..!

पहला उदहारण लेते हैं, बंगला देश के चिटगांव का. चीन की सहायता से बने इस बंदरगाह में भाजपा सरकार आने से पहले तक भारतीय जहाजों का प्रवेश वर्जित था. भारतीय जहाजों को ट्रांस-शिपमेंट के लिए सिंगापुर तक जाना पड़ता था.

लेकिन अब ऐसा नहीं हैं. कुछ महीने पहले, भारत सरकार और बंगला देश सरकार के बीच हुए समझौते के कारण अब भारतीय जहाजों का आवागमन चिटगांव बंदरगाह पर हो रहा हैं. जहाजरानी मंत्रालय, विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री कार्यालय के समन्वित प्रयासों से यह हो पाया हैं. पहली बार दुनिया के समझ में आ रहा हैं, की दिल्ली में कोई सरकार भी बैठी हैं.

यही हाल कुछ हद तक मालदीव्स का हैं. अभी छह महीने पहले उसके चीन के साथ हुए समझौते में चीन की सारी शर्ते नहीं मानी गयी. वहां पर चीनी पनडुब्बियों का अड्डा बनना अब कठिन लग रहा हैं.

लेकिन इन सब के बीच मास्टर स्ट्रोक लगाया हैं, नितीन गडकरी जी ने..!

चीन के ग्वादर (जिसका उल्लेख तीसरे लेखांक में था) के नहले पर भारत का दहला हैं, चाबाहार..! ग्वादर से मात्र ७२ किमी की दूरी पर, ईरान के सिस्तान-बलूचिस्तान प्रान्त में स्थित यह बंदरगाह भारत के सामरिक महत्व का स्थान हैं. अफगानिस्तान पहुचने का यह पर्यायी (दुसरा) रास्ता हैं. अफगानिस्तान भारत के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण पडौसी हैं. भारत से उसके मित्रतापूर्ण संबंध बने रहे, यह भारत की सुरक्षा नीति के अनुसार आवश्यक हैं. यदि पाकिस्तान के साथ अफगानिस्तान के संबंध मित्रतापूर्ण हो गए, तो खैबर के दर्रे पर और वजीरिस्तान में तैनात तालिबान और अन्य आतंकवादी संगठनों की वहां कोई प्रासंगिकता नहीं बचेगी, और वे सारी आतंकी फौजे कश्मीर के मोर्चे पर तैनात होंगी. भारत की बड़ी शक्ति उन ताकतों का सामना करने में खर्च होगी.
यही तो चाहता हैं, पाकिस्तान. इसलिए वह फिलहाल अफगानिस्तान के नए राष्ट्रपति के साथ दोस्ती बढ़ाना चाह रहा हैं. साथ ही भारत को अपना सामान सड़क रास्ते से अफगानिस्तान पहुचाने के लिए रोक रहा हैं. अफगानिस्तान में भारत की अनेक परियोजनाएं चल रही हैं. उन परियोजनाओं के लिए बड़ी मात्रा में सामान की आवश्यकता होती हैं. वहां के खनिजों के लिए भी भारत ने अफगानिस्तान से समझौता किया हैं. ऐसे सारे माल की ढुलाई अटारी से या बाघा बॉर्डर से, सड़क के रास्ते अफगानिस्तान तक बड़े आसानी से और सस्ते में हो सकती हैं. किन्तु पाकिस्तान ने इस पर रोक लगाई हैं.

स्वाभाविकतः भारत को नया रास्ता तो तलाशना ही था. चाबाहार वो रास्ता हैं. इस बंदरगाह से भारत ९०० किमी की रेल लाइन अफगानिस्तान को जोड़ने वाले मुख्य क्षेत्र तक बिछाएगा. समुद्री मार्ग से चाबाहार, वहाँ से रेल मार्ग से ज़रांज और वहाँ से सड़क मार्ग से अफगानिस्तान के अंदर तक. जरांज यह अफगानिस्तान के निर्मोझ राज्य में ईरान की सीमा पर स्थित हैं. यहाँ से डेलारम का रास्ता भारत के सहयोग से सन २००९ में बना हैं. यह योजना अगले ५-६ वर्षों में पूर्ण होती हैं, तो भारत के लिए मध्य-पूर्व के देशों के साथ व्यापार का एक नया रास्ता खुल जाएगा. अनुमान हैं की आज अफगानिस्तान के साथ होने वाला लगभग ७०० मिलियन अमरीकन डॉलर्स का व्यापार, इस परियोजना के पूर्ण होने पर ३ बिलियन अमरीकन डॉलर्स तक पहुच जाएगा.

लेकिन भारत तो इस से भी दूर का चित्र देख रहा हैं. अफगानिस्तान के बामियान राज्य में लोह अयस्क का विशाल भण्डार हैं. सेल (स्टील अथॉरिटी ऑफ़ इंडिया) ने वहाँ के हाजिगाक क्षेत्र में खुदाई का ठेका लिया हैं. वहाँ लगभग १.८ बिलियन टन के लोह अयस्क के भंडार का अनुमान रुसी अभियंताओं ने कुछ वर्ष पहले लगाया था. इस लोह अयस्क की ढुलाई की दृष्टि से चाबाहार यह सस्ता और आसान रास्ता रहेगा.

इस से भी बड़ी एक महत्वाकांक्षी परियोजना पर भारत काम कर रहा हैं. ईरान से भारत तक तेल के लिए पाइप लाइन डालने की योजनाओं पर अनेक बार विचार हुआ हैं. लेकिन बीच में पाकिस्तान की जमीन आने से यह सब परियोजनाएं धरी की धरी रह गयी हैं. लेकिन अब चाबाहार ने एक नयी दिशा दी हैं. चाबाहार बंदरगाह से मुंबई बंदरगाह तक समुद्र के अंदर गैस की पाईपलाइन डालने के परियोजना पर भारत और ईरान काम कर रहे हैं. प्राकृतिक गैस के परिवहन का यह अत्यधिक सस्ता और प्रभावी मार्ग रहेगा. इस पाईपलाइन की परियोजना के बगैर भी भारत को चाबाहार के कारण तेल और गैस की ढुलाई के खर्चे में दो तिहाई की बचत हो रही हैं.

पिछले वर्ष सात मई को तेहरान में जब भारत के जहाजरानी व परिवहन मंत्री श्री नितिन गडकरी, ईरान के अपने सहयोगी मंत्री डॉ. अब्बास अहमद अखौदी के साथ चबाहार बंदरगाह के बारे में समझौते पर हस्ताक्षर कर रहे थे, तब सुदूर बीजिंग, इस्लामाबाद और वाशिंगटन में बैठे राजनयिक गुस्से से दाँत पीस रहे थे. अलग, अलग कारणों से ही सही, पर ये तीनों देश भारत – ईरान के इस चाबाहार समझौते के विरोध में थे.

ये हैं, भारत सरकार की रणनीति..!!

ये तो हुआ बाह्य चुनौतियों के बारे में.

चीन की अंतर्गत और आर्थिक चुनौतियों का सबसे बड़ा उत्तर हैं, ‘मेक इन इंडिया’ अभियान. लोग पूछते हैं, ‘चीनी सामान पर हमारी सरकार पाबन्दी क्यूँ नहीं लगाती’ ? यह संभव नहीं हैं. चीन और भारत यह दोनों देश विश्व व्यापार संधि से बंधे हैं और इन में मुक्त व्यापार होता हैं. मुक्त व्यापर में पाबंदियां संभव नहीं हैं.

लेकिन ‘ मेक इन इंडिया’ से यह संभव हैं. पहली बार हमारे देश ने उत्पादकता बढाने के लिए इतना बड़ा अभियान चलाया हैं. इसके परिणाम आने में अभी दो – तीन वर्ष और लगेंगे. लेकिन उसके बाद भारत में अनेक छोटी – बड़ी वस्तुओं का उत्पादन बढेगा और चीन से हमारी आयात निश्चित रूप से कम होगी.

इस अभियान में अगर भारतीय जनता भी साथ देती हैं, और छोटे – बड़े चीनी वस्तुओं का पूर्ण बहिष्कार करती हैं, तो भारत चीन के बीच का ‘व्यापार घाटा’ कम होगा और हमारी अमूल्य विदेशी मुद्रा भी बचेगी..!

चीन की चुनौती गंभीर हैं, भविष्य को सामने रखकर बनाई हैं, हमें घेरने का प्रयास करने वाली हैं... यह सब सच हैं.

लेकिन सच तो यह भी हैं की पहली बार दिल्ली की केंद्र सरकार ने इस चुनौती को जबरदस्त आत्मविश्वास से स्वीकार किया हैं. हम पीछे जरुर हैं, लेकिन जीत का ढृढ़ विश्वास भी हैं..!

चीन के साथ चल रहे इस अप्रकट, आर्थिक और सामरिक शीत-युध्द में हमारी विजय होगी, ऐसे संकेत सामने हैं..!

- प्रशांत पोल