गुजरात चुनावों के प्रसंगवश – २
गुजरात चुनाव में ‘नोटा’ का खूब प्रयोग हुआ. लगभग २% वोट नोटा को मिले. अर्थात, नोटा यदि राजनीतिक दल होता, तो वह तीसरा सबसे बड़ा दल कहलाता..! शरद पवार की ‘राकापा’ (एनसीपी) को और केजरीवाल के ‘आप’ को नोटा से भी कम वोट मिले. लगभग १५ – १६ विधानसभा क्षेत्रों में नोटा के आधे वोट भी भाजपा के खाते में जाते, तो वह सीटें भाजपा की होती.
ऐसा क्यूँ हुआ..? और मात्र गुजरात में ही क्यूँ हुआ..? हिमाचल प्रदेश में नोटा की संख्या अत्यंत कम हैं. वहां नोटा के कारण भाजपा या कांग्रेस के हार – जीत में कोई फर्क पड़ता दिखता नहीं हैं. लेकिन गुजरात में पडा हैं. ऐसा क्यूँ.?
नोटा का बटन दबाकर अपना वोट बर्बाद करने वाला वोटर, अधिकतर भाजपा का था. भाजपा की रीति और नीति से प्रक्षुब्ध मतदाता किसको वोट दे..? कांग्रेस को वोट देकर वह पाप का भागीदार बनना नहीं चाहता था. और मतदान तो करना हैं. इसलिए उसने ‘नोटा’ को चुना. भाजपा के शीर्ष नेतृत्व ने इसे अत्यंत गंभीरता से लेने की आवश्यकता हैं.
पिछले कुछ दिनोंसे भाजपा के कार्यकर्ताओं में एक जुमला खूब चल रहा हैं –
कांग्रेस मुक्त भारत
अर्थात
कांग्रेस युक्त भाजपा..!
दिल्ली से लेकर ग्राम पंचायत तक जब भाजपा की सत्ता हैं, तो बड़ा स्वाभाविक हैं, राजनीति के मोहरे भाजपा के पास आने का प्रयास करेंगे ही. राजनीतिक विस्तारवाद के चलते भाजपा ने अन्य दलों से तोड़कर अनेक चेहरों को भाजपा में प्रश्रय दिया. इनके चाल, चरित्र, चेहरे सभी संशय के आवरण में थे. या यूँ कहे, बदनाम थे. इनमे से अधिकतर चेहरे, अपने उद्योग – व्यवसाय की अनियमितताओं को बचाने या छुपाने के लिए भाजपा में आए थे.
राजनीतिक क्षेत्र में काम करने वाले कार्यकर्ता इस परिस्थिति को समझ सकते हैं. कई बार ऐसा करना पड़ता हैं. राजनीति में यह जायज भी हैं. लेकिन कितना..? अपेक्षा यह होती हैं, की जैसे हिन्दू समाज, शक और हूणों को पचा गया और उन्हें हिन्दू बना गया, वैसे इन ‘चेहरों’ को भाजपा पचा जायेगी और उन्हें ‘अपने रंग’ में रंग देगी.
लेकिन क्या ऐसा हुआ..? सीधा सपाट उत्तर हैं – नहीं. नाना पटोले जैसा सांसद अपनी कांग्रेसी बैकग्राउंड छोड़ नहीं सका. आखिर मोदी जी को गरियाते हुए उसने इस्तीफा दिया. और अपने ‘सुधीन्द्र कुलकर्णी’..? विश्वास नहीं होता, की कभी यह व्यक्ति देश के दो शीर्ष भाजपा नेताओं का सलाहकार था..! अटल जी के समय प्रधानमंत्री कार्यालय में इस आदमी की दखल थी. और अडवानी जी को तो ‘भाषण लिखकर देने से तो कब क्या करना हैं’ इसकी सलाह देता था. आज यही आदमी राहुल गाँधी की तारीफों के पूल बांध रहा हैं. उन्हें भारत का अगला ‘अत्यंत योग्य’ प्रधानमंत्री बता रहा हैं..!
भाजपा की समस्या यह हैं की निष्ठावान, समर्पित कार्यकर्ताओं की कीमत पर ऐसे घोर अवसरवादी चेहरों का पार्टी में महिमामंडन किया जाता हैं. और जब यह अपवाद के स्थान पर परिपाठी बन जाती हैं, तो भाजपा का निष्ठावान कार्यकर्ता उदास और निष्क्रिय होकर घर बैठ जाता हैं. सिध्दांतों और उसूलों को लेकर चलने वाली भाजपा जैसी पार्टी के लिए कार्यकर्ता बहुत कीमती संपत्ति (एसेट) हैं. कांग्रेस के लिए नहीं हैं. कारण – कांग्रेस जाती, धर्म की राजनीति करती हैं, जिसके लिए पार्टी की संरचना आवश्यक नहीं हैं.
डेढ़ वर्ष बाद लोकसभा के चुनाव हैं. दस महीनों बाद मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनाव हैं और कुछ ही महीनों बाद कर्नाटक का नंबर हैं. इन सभी राज्यों में उर्जावान, चारित्र्यवान, निष्ठावान और समर्पित कार्यकर्ताओं की खूब उपेक्षा हुई हैं. उन्हें मुख्य धारा में लाना होगा. महत्व देना होगा. २०१९ की चुनौती कार्यकर्ताओं के बल पर ही स्वीकार की जा सकती हैं.
गुजरात के चुनाव से भाजपा इतनी सीख ले, तो भी बहुत हैं..!
- प्रशांत पोल