गुजरात चुनावों के प्रसंगवश – ३
गुजरात की १८२ विधानसभा सीटों में ५५ सीटें शहरी परिवेश में तथा १२७ सीटें ग्रामीण क्षेत्र में हैं. इन ५५ शहरी विधानसभा क्षेत्रों में से इस बार भाजपा को मिली हैं ४४ सीटें. सन २०१२ के चुनावों में यही संख्या ४८ थी. ग्रामीण क्षेत्र में १२७ में से भाजपा को मिली ५५ सीटें तो कांग्रेस की संख्या रही ६८. अर्थात ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस ने बढ़त बनाएं रखी हैं. तो शहरी क्षेत्रों में भाजपा का वर्चस्व शाश्वत हैं (भले ही उस में कुछ सेंध दिख रही हैं).
जिस सूरत को लेकर अलग अलग कयास लगाये जा रहे थे, वहां की सभी शहरी सीटों पर भाजपा विजयी रही हैं. पाटीदारों के गढ़, सौराष्ट्र की अघोषित राजधानी राजकोट की शहरी सीटें भी भाजपा की झोली में गयी हैं. समस्या तो ग्रामीण क्षेत्रों को लेकर ही हैं.
कुछ लोगों का यह कहना था, की शहरी ‘पढ़े-लिखे’ मतदाताओं ने भाजपा को जिताया, तो देहात के ‘अनपढ़’ मतदाताओं ने कांग्रेस के लिए अपना झुकाव दिखाया. मैं इसे नहीं मानता. मतदाता हमेशा होशियार होता हैं. जिसे हमारा तमाम शहरी पढ़-लिखा वर्ग ‘गंवार’ समझता हैं, वह मतदाता भी ‘राजनीतिक दृष्टि से चालाक’ होता हैं. ऐसा नहीं होता, तो सन १९७७ के ऐतिहासिक चुनावों में, इसी ‘अनपढ़’ मतदाता ने कांग्रेस को धूल न चटाई होती. और २०१४ के चुनावों में भाजपा को वह शानदार जीत न दिलाई होती.
इसलिए, ग्रामीण मतदाता को ‘अनपढ़’ मानना, मैं लोकतंत्र का अपमान मानता हूँ. यदि मतदाता ने आपके अनुसार निर्णय नहीं दिया हैं, तो दोषी आप हैं, वह नहीं. आपने अपनी बात उस मतदाता तक ठीक से नहीं पहुचाई, यह मानना पडेगा. हमारी अभिव्यक्ति में, समझाने में कुछ चुक हुई हैं या हमारी नीतियों में गलती हैं, इस बात को समझना पड़ेगा.
गुजरात में यही हुआ हैं. भाजपा किसानों की उपेक्षा कर रही हैं, ऐसी सोच पूरे देश में बन रही हैं. पंजाब में यही मुद्दा उठा था. उत्तर प्रदेश में भी था. लेकिन वहां अन्य मुद्दे हावी हो गए. किसानों की उत्पादन क्षमता बढ़ रही हैं, लेकिन ‘किसानी’ यह व्यवसाय के नाते घाटे में जा रही हैं. इसका उत्तर ढूंढने के प्रमाणिक प्रयास नहीं हो रहे हैं. भाजपा सरकार ग्रामीण क्षेत्र को स्वयंपूर्ण और विकसित बनाने का प्रयास कर रही हैं, तो वास्तव में वें सारी योजनाएं उन तक पहुच रही हैं क्या..? इस पर चिंतन और मनन की आवश्यकता हैं. भाजपा ने अधिकांश नेताओं का ‘कनेक्ट’ ग्रामीण जनता से नहीं रहा हैं, यह भी वास्तविकता हैं.
भाजपा को इस बात पर गंभीर चिंतन करना पड़ेगा. मात्र कुछ ‘मुफ्त’ की योजनाएं किसानों को देकर इसका संकट कम होने वाला नहीं हैं. इस प्रश्न के गहराई में जाना होगा. इस देश का मूलाधार कृषि हैं. उसके साथ उपेक्षा करना भाजपा को महंगा पड़ने वाला हैं...!
- प्रशांत पोल