लोकमंथन – देशज विचारों का बुलंद आवाज
- प्रशांत पोल
‘लोकमंथन’ संपन्न हो कर लगभग दो सप्ताह का समय बीत गया हैं. लेकिन उसका प्रभाव आज भी मन-मष्तिष्क पर छाया हैं.
लोकमंथन यह राष्ट्रवादी सोच रखने वाले सभी विचारकों का तथा कर्मशीलों का अब तक का सबसे बड़ा जमावड़ा था. यह सुव्यवस्थित था. इसका प्रबंधन अत्यंत उत्कृष्ट था. इसका नेपथ्य जमीन से जुड़ा था. आकर्षक था. समाज के अधिकतम विषयों को छुने का प्रयास था. लोककला, लोकसंगीत, लोकविमर्श को इसमें प्राधान्य था. प्रतिभागियों की सहभागिता इसमें अच्छी थी.
ये सारी बाते तो थी ही..!
लेकिन ‘लोकमंथन’ में इससे भी बहुत कुछ ज्यादा था. ‘राष्ट्र सर्वोपरि मानने वाले सभी क्षेत्रों के लोगों का एक बुलंद उद्घोष’ इस रूप में लोकमंथन – २०१६ देखा जाएगा. ‘अपने जैसा सोचने वाले ये सारे लोग भी हैं’ यह एक दिलासा देने वाली बात प्रत्येक राष्ट्रवादी विचारक के मन में निश्चित रूप से कौंधी होगी. अपने देश की इस अद्भुत और अमूल्य विरासत के बारे में बड़े ही अभिमान के साथ यहां चर्चा हुई.
लोकमंथन ने देश के बारे में सोचनेवालों को निश्चित रूप से एक नई दिशा दी हैं. समाज के बारे में सोचने वाला, या यूं कहे, ‘सोचने का अभिनय करने वाला’, एक अभिजात्य वर्ग आज तक जो विमर्श करता आया हैं, वे अधिकतर विमर्श समाज से कटे हुएं विचारों का प्रतिबिंब बने थे. किसी विदेशी एन जी ओ या विदेशी फाउंडेशन की मदद से आयोजित ऐसे विमर्शों में अभी तक तमाम ‘भारतीय’ चीजों के बारे में एक हीनत्व की भावना निर्माण करने का प्रयास होता था. ‘देशत्व’ की भावना को ‘असहिष्णुता’ कहा जाता था. पाश्चात्य जीवन शैली या साम्यवादी विचारधारा को केंद्र में रखकर आयोजित ऐसे विमर्श भारतीयता की भावना से कोसो दूर हुआ करते थे.
लेकिन लोकमंथन ने यह सब बदल दिया. बिलकुल बदल दिया. यह पूर्णतः ‘देशज’ आचार / विचारों का सम्मेलन था, विमर्श था. भारतीय शास्त्रार्थ से लेकर तो समाज पर हो रहे सोशल मीडिया के प्रभाव तक, सब कुछ इसमें शामिल था.
यह सम्पूर्ण विमर्श जब प्रकाशित होगा, तो उसका निचोड़ निकालना ज्यादा तर्कसंगत होगा. कारण, अनेक समानांतर चल रहे विमर्श सुनना किसी एक व्यक्ति के लिए संभव नहीं था. किन्तु फिर भी इसका तात्कालिक सार समझ में आता हैं, वह हैं –
- हमारी ‘देशज’ संस्कृति अभिजात हैं, संपन्न हैं, परिपूर्ण हैं. हम उसको ठीक से खोज नहीं सके हैं, जिसे खोजने की जरूरत हैं.
- इस ‘देशज’ संस्कृति का अभिमान ही हमें हमारे एक हजार वर्षों के औपनिवेशिक विचारों की छाया से दूर करेगा.
- लोक कला, लोक संस्कृति, लोक गायन आदि हमारे समाज की धरोहर हैं. इनको बचाना / टिकाएं रखना हमारा कर्तव्य हैं.
- इन सबके ऊपर हमारा देश हैं. हमारा राष्ट्र हैं. इस राष्ट्र को सर्वोपरि मानते हुए हमारी कलाओं में / संस्कृति में / आचार में / विचार में राष्ट्र चिंतन रहे, राष्ट्र के उत्कर्ष की आकांक्षा रहे इसी सोच को बल देना हैं.
लोकमंथन में गंभीर चिंतन भी हुए तो कुछ हलके, फुलके, नर्म-विनोदी विमर्श भी रहे. किन्तु उन सभी सत्रों में विचारों की प्रगल्भता थी. अभिनेता अनुपम खेर ने अपनी ख़ास व्यंगात्मक शैली में लेकिन बेबाक रूप से अपनी बात रखी, तो चिन्तक तारेक फतह के प्रत्येक वाक्य पर ताली बज रही थी. ‘हिन्दुस्थान में रहने वाला हर एक हिन्दू ही रहेगा’ और ‘हिंदुत्व को, वेस्ट को क्रिटिसाइज करना आसान हैं. इस्लाम को क्रिटीसाइज करो तो जाने..!’ जैसे वाक्यों को खूप सराहा गया.
लोक कलाओं के प्रख्यात चिन्तक कपिल तिवारी का गला तो अपनी भाषा, अपनी संस्कृति की महत्ता का बखान करते समय रुंध गया था..! उन्होंने कहां, ‘अपनी भाषा छोड़कर हम अपने देश की कल्पना कैसे कर सकते हैं..?’ इसी कड़ी में प्रख्यात गायिका कलापिनी कोमकली ने कहां, ‘कला और संस्कृति के बिना भारत की कल्पना ही नहीं की जा सकती. इतनी सारी संस्कृति समेटे अपना देश अद्वितीय हैं.’
‘राष्ट्र सर्वोपरी’ मानने वाला लगभग प्रत्येक प्रमुख विचारक, चिन्तक, कार्यकर्ता इस विमर्श में उपस्थित था. इन सब की उपस्थिति ने इसे एक भव्य वैचारिक महाकुंभ बना दिया.
‘लोकमंथन – २०१६’ यह सफल रहा. सभी अर्थों में सफल रहा. इसकी आवाज पूरे देश में जोरदार बुलंद हुई हैं. अब इसकी प्रतिक्रिया में साम्यवादी, समाजवादी सक्रीय होंगे. ऐसे ही विमर्श आयोजित करने का प्रयास करेंगे. किन्तु जिस भी चिंतन में ‘देशज’ विचार नहीं होगा, वह अब इस भूमि पर स्वीकार होना कठिन हैं.
प्रशांत पोल
‘मैत्र’, ११२६, समाधान अस्पताल के बाजो में, राईट टाउन, जबलपुर – ४८२ ००२
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