गढ़ा-मंडला (आज का जबलपुर संभाग) की रानी दुर्गावती, सोलहवी शताब्दी के मुग़ल शासन में भी स्वतंत्रता की ज्योत प्रज्वलित रखने के लिए जानी जाती हैं. अकबर के शासन काल में रानी ने शौर्यता के साथ मुग़ल सेना से सामना किया.
दुर्गावती के वीरतापूर्ण चरित्र को लम्बे समय तक इसलिए दबाये रखा कि उसने मुस्लिम शासकों के विरुद्ध संघर्ष किया और उन्हें अनेकों बार पराजित किया। देर से ही सही मगर आज वे तथ्य सम्पूर्ण विश्व के सामने हैं। धन्य है रानी का पराक्रम जिसने अपने मान सम्मान, धर्म की रक्षा और स्वतंत्रता के लिए युद्ध भूमि को चुना और अनेकों बार शत्रुओं को पराजित करते हुए बलिदान दे दिया।
वीरांगना महारानी दुर्गावती, कालिंजर के राजा कीर्तिसिंह चंदेल की एकमात्र संतान थीं। महोबा के राठ गांव में १० जून १५२५ तथा हिंदु कालगणनानुसार आषाढ शुक्ल द्वितीयाको रानी दुर्गावती का जन्म हुआ। नाम के अनुरूप ही तेज, साहस, शौर्य और सुन्दरता के कारण इनकी प्रसिद्धि सब ओर फैल गयी। दुर्गावती के मायके और ससुराल पक्ष की जाति भिन्न थी लेकिन फिर भी दुर्गावती की प्रसिद्धि से प्रभावित होकर राजा संग्राम शाह ने अपने पुत्र दलपतशाह से विवाह करके, उसे अपनी पुत्रवधू बनाया था।
दुर्भाग्यवश विवाह के चार वर्ष बाद ही राजा दलपतशाह का निधन हो गया। उस समय दुर्गावती की गोद में तीन वर्षीय नारायण ही था। अतः रानी ने स्वयं ही गढ़-मंडला का शासन संभाल लिया। उन्होंने अनेक मंदिर, मठ, कुएं, बावड़ी तथा धर्मशालाएं बनवाई। उनकी शासन व्यवस्था, जल व्यवस्थापन आदि आज भी सराहे जाते हैं। वर्तमान जबलपुर उनके राज्य का केन्द्र था। उन्होंने अपनी दासी के नाम पर चेरीताल, अपने नाम पर रानीताल तथा अपने विश्वस्त दीवान आधारसिंह के नाम पर आधारताल बनवाया।
दलपतशाहकी मृत्यु लगभग १५५० ईसवी सदीमें हुई । उस समय वीर नारायणकी आयु बहुत अल्प होनेके कारण, रानी दुर्गावतीने गोंड राज्यकी बागडोर (लगाम) अपने हाथोंमें थाम ली । अधर कायस्थ एवं मन ठाकुर, इन दो मंत्रियोंने सफलतापूर्वक तथा प्रभावी रूपसे राज्यका प्रशासन चलानेमें रानीकी मदद की । रानीने सिंगौरगढसे अपनी राजधानी चौरागढ स्थानांतरित की । सातपुडा पर्वतसे घिरे इस दुर्गका (किलेका) रणनीतिकी दृष्टिसे बडा महत्त्व था ।
कहा जाता है कि इस कालावधिमें व्यापार बडा फूला-फला । प्रजा संपन्न एवं समृद्ध थी । अपने पतिके पूर्वजोंकी तरह रानीने भी राज्यकी सीमा बढाई तथा बडी कुशलता, उदारता एवं साहसके साथ गोंडवनका राजनैतिक एकीकरण प्रस्थापित किया । राज्यके २३००० गांवोंमेंसे १२००० गांवोंका व्यवस्थापन उसकी सरकार करती थी । अच्छी तरहसे सुसज्जित सेनामें २०,००० घुडसवार तथा १००० हाथी दलके साथ बडी संख्या में पैदल सेना भी अंतर्भूत थी। रानी तलवार की अपेक्षा बंदूक का प्रयोग अधिक करती थी । बंदूक से लक्ष साधनेमें वह अधिक दक्ष थी । ‘एक गोली एक बली’, ऐसी उनकी आखेटकी पद्धति थी । रानी दुर्गावती राज्यकार्य संभालनेमें बहुत चतुर, पराक्रमी और दूरदर्शी थी ।
अकबरने वर्ष १५६३ में आसफ खान नामक बलाढ्य सेनानीको गोंडवाना पर आक्रमण करने भेज दिया । यह समाचार मिलते ही रानीने अपनी व्यूहरचना आरंभ कर दी । सर्वप्रथम अपने विश्वसनीय दूतों द्वारा अपने मांडलिक राजाओं तथा सेनानायकों को सावधान हो जानेकी सूचनाएं भेज दीं । अपनी सेनाकी कुछ टुकडियोंको घने जंगलमें छिपा रखा और शेष को अपने साथ लेकर रानी निकल पडी । रानी ने सैनिकों को मार्गदर्शन किया । एक पहाड़ की तलहटीपर आसफ खान और रानी दुर्गावतीका सामना हुआ । बडे आवेशसे युद्ध हुआ । मुगल सेना विशाल थी । उसमें बंदूकधारी सैनिक अधिक थे । इस कारण रानीके सैनिक मरने लगे; परंतु इतनेमें जंगलमें छिपी सेनाने अचानक धनुष-बाणसे आक्रमण कर, बाणोंकी वर्षा की । इससे मुगल सेनाको भारी क्षति पहुंची और रानी दुर्गावतीने आसफ खानको पराजित किया । आसफ खानने एक वर्षकी अवधिमें ३ बार आक्रमण किया और तीनों ही बार वह पराजित हुआ।
अंतमें वर्ष १५६४ में आसफखान ने सिंगौरगढ पर घेरा डाला; परंतु रानी वहां से भागने में सफल हुई । यह समाचार पाते ही आसफखान ने रानी का पीछा किया । पुनः युद्ध आरंभ हो गया । दोनो ओरसे सैनिकोंको भारी क्षति पहुंची । रानी प्राणों पर खेलकर युद्ध कर रही थीं । इतनेमें रानीके पुत्र वीरनारायण सिंहके अत्यंत घायल होने का समाचार सुनकर सेना में भगदड मच गई । सैनिक भागने लगे । रानी के पास केवल ३०० सैनिक थे । उन्हीं सैनिकों के साथ रानी स्वयं घायल होने पर भी आसफखान से शौर्य से लड रही थी । उसकी अवस्था और परिस्थिति देखकर सैनिकोंने उसे सुरक्षित स्थानपर चलनेकी विनती की; परंतु रानीने कहा, ‘‘मैं युद्ध भूमि छोडकर नहीं जाऊंगी, इस युद्धमें मुझे विजय अथवा मृत्युमें से एक चाहिए।” अंतमें घायल तथा थकी हुई अवस्थामें उसने एक सैनिकको पास बुलाकर कहा, “अब हमसे तलवार घुमाना असंभव है; परंतु हमारे शरीरका नख भी शत्रुके हाथ न लगे, यही हमारी अंतिम इच्छा है। इसलिए आप भालेसे हमें मार दीजिए। हमें वीरमृत्यु चाहिए और वह आप हमें दीजिए”; परंतु सैनिक वह साहस न कर सका, तो रानीने स्वयं ही अपनी तलवार गलेपर चला ली।
वह दिन था २४ जून १५६४ का। इस प्रकार युद्ध भूमि पर गोंडवानाके लिए अर्थात् अपने देशकी स्वतंत्रताके लिए अंतिम क्षण तक वह झूझती रही। गोंडवाना पर वर्ष १९४९ से १५६४ अर्थात् १५ वर्ष तक रानी दुर्गावतीका शासन था, जो मुगलोंने नष्ट किया । इस प्रकार महान पराक्रमी रानी दुर्गावतीका अंत हुआ। इस महान वीरांगनाको हमारा शतशः प्रणाम !