माता – पिता, गुरुजन, मातृभूमि और समाज के प्रति ऋण व्यक्त करने वाली हमारी संस्कृति अद्वितीय हैं.

मनुष्य सामाजिक प्राणी हैं. हमारे जन्म से ही हम समाज का हिस्सा हो जाते हैं. समाज के बिना हम अधूरे हैं. जिस समाज का इतना उपकार और अनुदान लेकर मनुष्य सुख – सुविधाएं प्राप्त करता हैं, उसका ऋणी होना ही चाहिये.

यदि लोग समाज के कोष से मात्र लेते ही रहेंगे, पर उसका भण्डार भरने की बात न सोचे, तो वह सामूहिक कोष खाली हो जाएगा. जैसे, हमारे गाँव में सार्वजनिक कुएं से हमेशा पानी निकलने की ही सोचे, उसके सफाई की चिंता न करे, तो क्या होगा..? हमारा कुआँ धीरे धीरे कचरे से भरने लगेगा. उसके अंदर के झरने बंद होने लगेंगे और अंत में वह कुआँ सूख जायेगा..! इसलिए समाज से हमने जितना लिया हैं, उससे बढकर वापस करना, याने सामाजिक ऋण चुकाना हैं.

पर्यावरण को संतुलित रखना यह भी सामाजिक ऋण चुकाने का हिस्सा हैं. हम बेहताशा पानी खर्च करते हैं. आवश्यकता न रहने पर भी पानी व्यर्थ गवांते हैं..! क्यूँ..? आज समाज में पानी की कमी हैं. पानी के लिए युध्द छिड़ रहे हैं. ऐसे में पानी का एक एक बूंद बचाना भी सामाजिक ऋण चुकाना ही हैं..!

  • प्रशांत पोळ