‘वर्तमान वैश्विक संकट का समाधान’

-  प्रशांत पोळ

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के ‘अखिल भारतीय कार्यकारी मंडल’ की बैठक भाग्यनगर (हैदराबाद) में चल रही हैं. आज इस बैठक में दो प्रस्ताव पारित किये गए. इनमे से एक स्व. दीनदयाल जी के ‘एकात्म मानव दर्शन’ पर हैं.

मैं इस प्रस्ताव को अत्यंत महत्वपूर्ण मानता हूँ. यह वर्ष दीनदयाल उपाध्याय जी का जन्मशताब्दी वर्ष हैं. साथ ही ‘एकात्म मानव दर्शन’ के प्रतिपादन का यह ५१ वां वर्ष हैं. मात्र इसलिए इस प्रस्ताव का महत्व नहीं हैं. यह प्रस्ताव आज की विषम, असुरक्षित, भोगवादी एवं अस्थिर जीवनशैली के लिए दिशादर्शक विचार हैं. प्रस्ताव का शीर्षक ही कहता हैं, ‘वर्तमान वैश्विक संकट का समाधान – एकात्म मानव दर्शन’.

आज विश्व में आर्थिक विषमता हैं, जो बढती ही जा रही हैं. पर्यावरण असंतुलन हैं, जो विश्व के जलवायु में परिवर्तन ला रहा हैं. बढती धार्मिक कट्टरता हैं, जो दुनिया को आतंकवाद की आग में झोंक रही हैं. बढती बेरोजगारी हैं, कुपोषण हैं, क्रौर्य हैं....! इन सब समस्याओं का उत्तर पाने का मार्ग, दीनदयाल जी के ‘एकात्म मानव दर्शन’ में दिखता हैं.


क्या हैं यह ‘एकात्म मानव दर्शन’? इस विचार की प्रेरणा दीनदयाल जी को ‘दैशिक शास्त्र’ इस पुस्तक से मिली, जिसका संदर्भ श्रध्देय गुरूजी ने दिया था. ‘दैशिक शास्त्र’ याने देश प्रेम ‘सिखाने’ वाला शास्त्र. अल्मोड़ा के बद्रीप्रसाद टुलधारी जी के लिखे इस पुस्तक की प्रेरणा रही हैं, स्वामी विवेकानंद..!

‘एकात्म मानव दर्शन’ अर्थात व्यक्ति के परिपूर्ण, संतुलित एवम् स्थिर जीवन जीने का मार्ग. किन्तु व्यक्ति का अस्तित्व समाज के साथ हैं. इस लिए यह जीवन समाज के साथ, समाज के बीच व्यतीत होना चाहिए. और समाज, हमारे देश का, राष्ट्र का अंग हैं. इस लिए हमारे विकास के साथ राष्ट्र का विकास अभिप्रेत हैं. राष्ट्र यह सृष्टि का हिस्सा हैं. अर्थात व्यक्ति – समष्टि – सृष्टि का एक दुसरे के साथ, हाथ में हाथ डालकर किया हुआ प्रवास, याने ‘एकात्म मानव दर्शन..!’

इस एकात्म मानव दर्शन के विचार में दीनदयाल जी ने ‘चिति’ और ‘विराट’ की संकल्पनाओं का वर्णन किया हैं. ‘चिति’ का अर्थ हैं – राष्ट्र की अस्मिता. राष्ट्र की पहचान. राष्ट्र का मानबिंदु..! इस चिति को यदि ‘प्रज्वलित’ किया गया, तो राष्ट्र का ‘विराट’ स्वरुप सामने आता हैं.

अर्थात सृष्टि के विनाश से राष्ट्र का या समाज का उत्थान नहीं हो सकता. उसी प्रकार, सृष्टि के, राष्ट्र के कमजोर होने से व्यक्ति का विकास होना संभव ही नहीं हैं – यह विचार एकात्म मानव दर्शन देता हैं.

रा. स्व. संघ ने इस प्रस्ताव के माध्यम से इस ‘सर्वे सन्तु निरामया...’ के विचार को बिलकुल उचित समय पर समाज के बीच लाया हैं. इस पर चर्चा – विचार – मंथन अपेक्षित हैं..!

- प्रशांत पोळ